इश्क़ की गलियों में आपका भी स्वागत है।
पुराने मुसाफ़िर से पूछ,
सफ़र लंबा,
रास्तों में कांटे और
पाँव में छालों की आफत है।
बड़ी खुशी हुई तुम्हारा खत पढ़कर और मैं खुश हूं तुम्हारे सामाजिक क्रांति के साथ आंतरिक क्रांति में साथ देने के लिए अब तुम्हें साथी मिल गया है। वो केहते है ना..
Kuch hosh nahi rehta,
Kuch dhyaan nahi rehta!
Insaan mohabbat mein,
insaan nahi rehta!
प्यार मानव जीवन की शायद एक बड़ी खूबसूरत और अब भी हमारी समझ से कोसों दूर की भावना है। जिसे कैद नहीं किया जा सकता दायरो में, खैर तुमने मेरे प्यार के बारे में पूछा था। तो हां, इश्क की मजार पर हमने भी माथा टेका था। मैं अपने ग्रेजुएशन के लास्ट ईयर में थी। बड़ी कम उम्र से अमृता को पढ़ा है, मानो पढ़ा नहीं जिया हो उसे,और इन जनाब को देख महसूस साहिर का प्यार होता था। पर उसे जानने पर वह तो मेरा इमरोज निकला, मैं तब वाराणसी में रहती थी। बचपन से ही अडीयल थी मैं, पिताजी राजनीति में थे कट्टर हिंदू समर्थक, और हम, हम ढूंढ रहे थे कॉमरेड! बस कॉलेज में स्टूडेंट इलेक्शन में जब मैंने इन जनाब को सुना और न जाने कैसे खुद ही मैंने इन से बातें शुरू कर दी, दोस्ती ने कुछ ही महीनों में रंग पकड़ लिया, मेरी छाती से पहले उसकी नजर का मेरी मुस्कुराहट को देखना,मेरे बदन से पहले उसके हाथो का मेरे सर को छूना, मेरे लबों से पहले उसके लबो का मेरे माथे को चुमना, उसका पुरुष होने से कई ज्यादा इंसान होना, मजबूर कर देता था मुझे उससे प्यार करने के लिए। व्यक्तिवाद का आधार लेना इन्हें कभी जमा ही नहीं, सही को सही और गलत को गलत बोलने के आदि थे यह और फिर मैंने एक दिन कॉलेज के गेट पर इन जनाब को रोक कर, के ही दिया “मैं तुम्हें इसलिए प्यार नहीं करती कि तुम बहुत सुंदर हो और मुझे बहुत अच्छे लगते हो मैं इसलिए प्यार करती हूं कि जब मैं तुम्हें देखती हूं मुझे लगता है क्रांति होगी” जवाब में इमरान की मुस्कुराहट ने मेरी सांसों को मानो एक पल के लिए रोक दिया हो, इस प्यार भरे नाते में हमने वो सब किया जो शायद प्रेमी करते हैं घूमना, फिरना, खाना, बातें करना, किताबें पढ़ना, पिक्चर देखना एक दूसरे की जिंदगी, विचार और सपनों को समझना।
“पर यह इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए एक आग का दरिया है और डूब के जाना है”
और उस दिन भैया ने इमरान को मेरे साथ स्कूटर पर देख लिया एक दिन तो यह होना ही था पर शायद मैं इसके लिए तैयार न थी। उसने घर आकर पिताजी के सामने बात रखी वह इमरान के बारे में सब कुछ जान चुका था उसने इमरान के धर्म पर सैकड़ों गालियां दी उस वक्त साहिर की वह लाइन याद आई “जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है ,जुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है, भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में, इश्क ही एक हकीकत नहीं कुछ और भी है।” मैंने जाना कि चाहे प्यार की बातें कितनी ही कर ले यह समाज धर्म जात लिंग और वर्ग जितनी ताकत, आज भी प्यार में नहीं। कांच हो टूटकर बिखरने के उस एक ही पल में, मेंरे पिता ने मुस्कुराकर मेरा हाथ थाम कहां “तुम इमरान को रामनवमी के दिन घर बुला लो मुझे पता है तुम्हारे लिए क्या सही है”। मानो कांच पर लगने से पहले ही उस पत्थर को किसी ने रोक लिया, मैं बहुत खुश थी में पिता जी के गले लग, भाग कर कमरे में जा इमरान को फोन लगाया, “परसो रामनवमी है तुम पिताजी से मिलने आ जाना”। रामनवमी का दिन आया इमरान और मैं दोनों ही बड़े खुश थे हम दोनों का ही एज्युकेशन खत्म होकर नौकरियां लगने वाली थी। घरवालों की तरफ से भी सभी चीजों की हामी थी। अब बस शाम होने का इंतजार था। जिंदगी में पानी से प्यार के चलते घाटों से बड़ा अजीब सा पर अटूट रिश्ता रहा है मेरा, हम वाराणसी में जहां रहते थे, वहां से कुछ 10 मिनट के अंतर पर ही मणिकर्णिका घाट है। बचपन से ही गंगा का वह हिस्सा न जाने बड़ा अपना सा लगता था। मानो पवित्रता और स्वच्छता की जंग छिड़ी हो। मैं पूजा की थाली ले, घाट पर निकली मन में अनेकों उमंगे लिए उस सारे शोर-शराबे में जेहन में बस पिताजी और इमरान की मुलाकात ढंग से हो जाए यही ख्याल आ रहा था,केहनो को आज रामनवमी थी पर मूझे याद सीता स्वयंवर की आ रही थी, घाट पर की सभी पूजा ए खत्म हो सभी लोग मंदिरों में भजन कर रहे थे, पूजा खत्म कर घर को निकलने से पहले, मैं घाट की तरफ बढ़ी मुझे अपने उस गंगा के हिस्से से अपनी खुशी को बांटना था। मैं पानी को हाथ लगाने के लिए नीचे उतरी, तो वहीं कोने में इतनी रात को एक इंसान गंगा में डुबकी लगा बाहर आ रहा था, गौर से देखा तो वह पिताजी थे, और वहां से थोड़ी ही दूर कोने में भैया एक बोरी को गंगा में प्रवाहित कर रहे थे, एक पल वह बोरी को देख , अनदेखा कर मैं दौड़ कर भैया के पास गई ” क्या हुआ भैया, इमरान आया था, कुछ बात हुई, क्या कहा पिताजी ने बताओ ना,” इन सारे सवालों पर, भैया ने बस एक वहशी मुस्कुराहट दे मेरे कंधे पर ठंडा हाथ रख कहा “यह मणिकर्णिका घाट है गुड़िया यहा सब को मुक्ति मिल जाती है, उसे भी मिल गई” मुझे कुछ नहीं समझा… मैं दो पल के लिए शांत हो अपनी पूरी हिम्मत जुटा पीछे उस गंगा में प्रवाहित बोरे की तरफ मुड़ी… ना वहा शरीर था, ना वहा पानी था वहाबस कुछ दूरी पर किसी जिंदगी को खत्म करने वाले निशान छोड़ता खून था ……
“जैसे दिल के फ़िकरे से,एक अक्षर बुझ गया..
जैसे विश्वास के काग़ज पर सियाही गिर गई..
जैसे समय के होंठों से,एक गहरी सॉस निकल गई..
और आदमजात की आंखों में,जैसे एक आंसू भर आया..
जैसे इश्क़ की जबान पर एक छाला उठ आया,सभ्यता की बाहों में जैसे
किसी जिंदगी ने दम तोड़ दिया,और जैसे धरती ने आसमान का, एक बड़ा उदास सा ख़त पढ़ा।
बस इसी तरह उससे मेरा प्यार न हो पाया….
तुम्हारी दोस्त..
समुद्रा
– समुद्रा
– विभाग – मुंबई