में चल रहा हू रास्ता
जो जात धर्म से हुवा
मे सांस लेना चाहु पर
इसमे ऊंच नीच की हवा
जो दिख रहा समाज हे
मे लिख रहा वो दृश्य हुं
चार लोगों की भीड मे
में ढुंढता मनुष्य हुँ
में ढूंढता मनुष्य हुँ…
हरियाली जो हे छुप रही
सृष्टी जो बेहाल हे
जानवर भी रो रहे
ये इंसान का कमाल हे
जो सज रहा हे सामने
मे लिख रहा वो कृत्य हुं
इस क्रूरता को चिरदे
वो ढुंढता मनुष्य हुँ
में ढुंढता मनुष्य हुँ…
हे औलाद धर्म की
जो मारती इंसान हे
ये बददुवा हे जात की
जो सड़ चुका इंसान हे
अब मरते मर ना पाऊ मे
और जीके भी क्या पाऊ मे
पाना चाहु अब अगर
चाहता वो वक्त हूं
इंसानियत का दृश्य जो
वो ढुंढता मनुष्य हुँ
में ढूंढता मनुष्य हुँ…
लहू का रंग लाल हे
हे जिस्म मेरा केह रहा
आंखो मे भरी धूल हे
हे जिस्म मेरा केह रहा
मेरा मुझपे अहंकार हे
भेदभाव सर पर चढा
खुद मे खुद से केह रहा
हर पल मे सदा दुष्ट हूं
मे खुद मे खुद को खोजता
में ढुंढता मनुष्य हुँ…
जो आसमा महान हे
वो पानी बेमिसाल सा
धरती का जो गंध हे
अब हवा मे हे बास (बदबू) सा
पहाड की ही गोद मे
पल रहा हूं रात सा
मे चाहता हूं सब मुझे
कहते रहे मे तुच्छ हूं
मे खुद मे खुद को खोजता
में ढुंढता मनुष्य हुँ…
बिन शस्त्रो का प्रहार हे
जो मृत्यु की भी जान लू
झगडो मे ही पल रहा
मे रक्त का चरित्र हूं
अपने पर ही तन रहा
मे वक्त का धनुष्य हुं
मे खुद मे खुद को खोजता
में ढूंढता मनुष्य हुँ…
अजय अनिता लक्ष्मण