
कहते हैं कि शहर की आबो हवाओँ को नज़र लग गई है।
कभी महामारी, कभी उलटती चक्रवाती तूफान लग गई है।
दोनो ने मिलकर उजाड़ दिए घर, जिंदगी एक सवाल सी लगती है।
मोहरे किस-किस के बने यह तो एक शतरंज की चाल सी लगती हैं।
तोड़ कर बिखेर दिए जाते है, हमारे बनाए घर को।
झोंक दिए जाते है, सूरज की आग में तपने को।
बारिश की तेज बूंदे चोट दे जाती हैं।
हमारी थकान हमे बिना आहार के नींद दे जाती है।
कहते हैं कि शहर की आबो हवाओँ को नज़र लग गई है।
उगती सूरज के साथ अपना आशियाना बनाते हैं।
विहग झुंड़ बनाएँ यहाँ – वहाँ की रोटियाँ को कुरेद के खाते हैं।
आहार को तीतर- बितर देख कर बच्चे मुँह से लोर टपकाते है।
हम पानी को जुटाने के लिए स्कूल का रास्ता तक भूल जाते है।
हम मलिन पानी को पीकर स्वास्थ्य के साथ दाव पेच तक खेल जाते है।
कहते हैं कि शहर की आबो हवाओँ को नज़र लग गई है।
वो क्यू कहते है कि हमारे लिए सब एक है।
वो क्यू फिर हमारे तबके को भूल जाते हैं।
कुरेद कर हमारी जमीन पर बड़े – बड़े अलिशा घर बनाते है।
हमे रास्तो पर खुले अम्बर के निचे छोड़ जाते है।
जब हम लड़ते अपने जीवन का हिस्सा पाने को, पीठ पर मार के बौछार पड़ जाते हैं।
कहते हैं कि शहर की आबो हवाओँ को नज़र लग गई है।
~ इशाद शेख
विभाग – मुंबई