
ना जाने क्यूं बदल गई है देश की सूरत
और बदल गई है सबकी अभिलाषा ।
रोज़ महंगाई की मार झेलती
रोज हाथ लगती है निराशा । ।
हर शख्स खुद में ही उलझा हुआ
खुद से लड़ता खुद को देता दिलासा ।
मन ही मन में खुद से हर शक्स सवाल करता
वाह रे विकास क्या यही है तेरी परिभाषा । ।
जो कर रहे है देश के विकास करने के वादे
पर अब वो खोखले और झूठे नजर आते हैं।
जो देश का मासूम बचपन हैं
अब किसी पटरी पर जीवन बिताते हैं । ।
रोज नई कहानी सुनकर कभी,
किसानों के साथ मनमर्जी की, कभी अत्याचारों की ।
कहीं कर्ज में डूबा किसान,
तो कहीं किसानों की आत्महत्या की बातें,
पर फिर भी देश के अन्नदाता को वो खालिस्तानी और एंटी नैशनल कहते हैं । ।
हर किसी के नम हो जाती है आंखे ।
कभी मन विचलित, तो कभी होती है मन में निराशा,
सुन कर कलंकित होती विकास की परिभाषा । ।
मातृभूमी भी रोज शर्मसार होती हैं
देख कर इन नेताओं का तमाशा ।
कहता है इंसान वाह रे विकास क्या यही है तेरी परिभाषा ।
राम राज्य का सपना दिखा कर वो
रोज अपनी ही मर्यादा का अपमान करते हैं ।
झूठे आश्वासन और वादों को हथियार बना कर,
विकास का बहुरूपिया रंग का चोला पहनाते हैं । ।
जात पात धर्म के नाम पर लोगों को उकसाते हैं
रोज एक नई कहानी और वही पुराना तमाशा,
मन में कई सवाल उलझनों से भरी,
रोज मिलती है खुद से निराशा,
चलती फिरती गिरती उठती,
शायद यही है विकास की परिभाषा । ।
वाह रे विकास क्या यही है तेरी परिभाषा,
क्या यही है तेरी परिभाषा.! ।
– सुजीत अनुराग