
मेरे विचार से यह वाक्य महिला को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाता है, क्योंकी महिला ने अगर यह स्वीकारा है तो सुझ बुझ कर ही यह किया होगा,
मेरी उम्र 24 साल है. और अगर मै केवल मेरे अनुभव बताने लगी तो तजुर्बेदार लोग अपना नज़रिया भी रखने की कोशिश करेंगे. इसलिए चलिये मेरे अनुभव और आपके तज़ुर्बे की बात साथ साथ करते है.
सुमती बेलाडे यह 62 वर्षीय महिला है जो पिछले 30 सालो से महिलाओं और युवतियों के प्रश्नों पर कार्यरत है, जब हमारी चर्चा इस विषय को लेकर हुई तो लगभग उनके तज़ुर्बे से कहीं हुई हर बात महत्वपूर्ण है, उनका तजुर्बा कहता है कि, “महिला इस लिए खुद से गुलामी स्वीकारती है क्यों कि वो अपने गुलामी को अपनी ज़िम्मेदारी समझ बैठी है. “
जिस तरह सिक्कों के दो पहलू होते है. ठीक उसी तरह सिक्के के पहले पहलू की तरह घर की हर जिम्मेदारी महिला संभल रही है . लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू की तरह अपनी ताकत को नहीं पहचान रही है . मैथिलीशरण गुप्त की लिखी हुई कविता. “अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी , आचल में दूध आखो में पानी”
कुछ वास्तविक अनुभव जो अक्सर महिला के जिंदगी में एक न एक बार आते ही है.
स्वयं ही गुलामी स्वीकार लेती हु ?….
मै हू दुनिया की आधी आबादी,
फिर भी पूरी नहीं मिली आजादी,
जब दुनिया में बड़े बड़े कारनामे मै खुद कर जाती हूं,
फिर भी बेटे के तुलना तुल जाती हु,
क्यों नहीं बेटी बनकर सब कुछ करू,
दर्द होता है जब बेटे का पद पाती हूं,
तब पितृसत्तात्मक पद्धिती की शिकार बन चुप रह जाती हूं,
मै स्वयं ही गुलामी स्वीकार लेती हूं ……
जब बेटियो की जान लालच से ली जाती है,
कोई अकेला नहीं समाज की साजिश भी उसमे मिल जाती है,
जब मै खुद मां होकर एक लड़की की जिंदगी बचा नहीं पाती हूं,
तब खुद को तुच्छ मान कर अपराध बोध बन जाती हूं,
मै स्वयं ही गुलामी स्वीकार लेती हूं…….
जब कोई मेरे इज़्ज़त को तार तार कर देता है,
और गुनाह मेरे ही कपड़ों का निकाल देता है,
मै स्वयं ही शर्मशार हो जाती हूं ,
मै स्वयं ही गुलामी स्वीकार लेती हूं…
“अगर महिलाएं खुद गुलामी स्वीकार रही है तो उसके पीछे के कारण को ढूंढने कि आवश्यकता है”
फ़्रांसीसी विद्वान सिमोन डी विभोर लिखती हैं “महिलाएँ पैदा नहीं होती, बल्कि महिलाएँ समाज के द्वारा बनाई जाती हैं.” वैसे ही महिला स्वयं ही गुलामी नहीं स्वीकारती, उससे हर उस मोड़ पर सहारा छीन लिया जाता है, जहां से वो गुलामी तोड़ने की शुरुआत कर सकती है.
पढ़ाई = पढ़ाई के पुस्तकों में बच्चों को उदाहरण दिया जाता है कि, राम खेल रहा है और गीता खाना बना रही है ऐसा लिखना बंद करो.
खेल = खेलने के लिए बैट बॉल दो गुड़िया बर्तन देना बंद करो.
स्कूल = स्त्री के शौचालय को गुलाबी रंग , पुरुष के शौचालय को नीला रंग यह रंगों में बाँटना बंद करो.
फैमिली = सदा सुखी रहो और अपने परिवार को खुश रखो यह आशीर्वाद देकर उसपर ज़िम्मेदारी का बोझ लादना बंद करो.
उपयुक्त लिखी चीज़े अक्सर लगातार हमारे साथ की जाती है. और ज़िन्दगी के एक पल में कहा जाता है, तुम आजाद हो करो जो करना है और वह सोच ही नहीं पाती की उसे करना क्या है? क्यों कि बचपन से गुलामी (जिम्मेदारियां) ही दी गई है आजादी नहीं! अगर इस गुलामी को खत्म करना है तो हर मोड़ पर साथ दो सहारा नहीं तब देखो वह गुलामी स्वीकारती है या आजादी ? मैं तो गुलामी से आजाद की ओर आगाज़ कर रही हूं. क्या तुम शुरुआत नहीं करोगी ?
~ आसमा अंसारी
विभाग-मुंबई