
हम तो है सरकार के पीछे,
सरकार है बोलो किसके पीछे?
सरकारी दफ्तर खुलते है,
हम जाकर रोज मिलते है,
काम हमारे कितने होते है,
इसकी गिनती हम किसे बताते है।
यह सवाल चलते रहे,
सरकारे मात्र कितनी भी बदलती रहे,
हम पूछे तो किसे पूछे,
हम बोले तो किसे बोले,
हम तो है आदत से मजबूर,
विकास तो दिख रहा कोसो दूर,
विकास की व्याख्या वो बनाते,
राजद्रोह बताकर बहुत कुछ छुपाते।
भूल गए हम खुद की जिम्मेदारी,
की बताना उन्हें उनकी जिम्मेदारी,
शर्म करता है आत्मसम्मान भी,
इतनी सोई है क्या आत्मा हमारी।
अब भी वक्त बाकी है,
तेरी , मेरी, हमारी सबकी जिंदगी बाकी है…
~ सिद्धेश रत्नमाला मदन (S.M.S.)
( मनातल्या दुनियेच्या विचारातून )
विभाग – मुंबई